03/10/2023
आज शाम @ मंडी हाउस, दिल्ली
प्रवेश निशुल्क
Kochiyar Library is currently focusing on the industrialization of the hilly part of Uttarakhand. Koc
(9)
Kochiyar Library is only an attempt in this direction.
आज सब से पहले जो मुद्दा उठाया जाना चाहिए वह है उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र का औद्योगिकीकरण. तभी पलायन रुक सकता है. - Dr. Ram Prasad
अब तक उत्तराखंड में जो विकास कार्य हुआ है वह वही हुआ है जो कि मैदानी क्षेत्र की प्लानिंग के आधार प्लानिंग कमीशन चाहता है.
सड़कों के लिए पैसा मिलता है सड़कें बन जाती है. बिजली के लिए पैसा मिलता है बिजली पंहुंच जात
ी है.
विकसित देशों में सड़कें बनाने और बिजली पंहुचाने का उद्देश्य केवल नागरिक सुविधाएं जुटाना नहीं है. उसका मुख्य उद्देश्य तो है उद्यमियों को उद्यम करने का मौका देना.
पहाड़ी क्षेत्र में कुछ और भी चाहिए. वह चीज जो आज नहीं है वह है वह काम जो कि टेक्नोलोजिकल नर्सरियां ही कर सकती हैं.
केवल स्कूलों और कॉलेजों से काम नहीं चलेगा, इनसे जो हो सकता था हो गया है म्यर उत्तराखंड गठित हो गया है. अब इसे दिखाना है कि क्या किया जाना चाहिए. http://www.facebook.com/kochiyar.library
|| टेक्नोलौजिकल नर्सरी ||
- विकसित भारत का आधार जड़ें होंगी। जड़ों द्वारा पेड़ में टिकाऊपन आता है। ऊपर से लादा गया विकास टिकाऊ हो ही नहीं सकता। यह जड़ें गाँव हैं। विकास का मतलब परिवर्तन है।
गाँवों में परिवर्तन गाँव के लोग ही ला सकते हैं। परिवर्तन ज्ञान द्वारा आता है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए व्यवस्था और वातावरण की आवश्यकता होती है।
व्यवस्था का प्रारूप जिस संगठन के द्वारा बनाया जाता है वह टेक्नोलौजिकल नर्सरी है।
आज शाम @ मंडी हाउस, दिल्ली
प्रवेश निशुल्क
Friday 29 September 2023
खालिस्तानी आंदोलन के तार कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन से कैसे जुडे
Addressed to`
सदस्य, म्यर उत्तराखंड, धुमाकोट/नैनीडांडा तथा इंटरनेट पर उपलब्ध दूसरे उत्तराखंडी ग्रुप
मीडिया ने रूस और भारत की लम्बी मित्रता के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसकी भूमिका का कहना है
भारत और रूस के बीच रिश्तों को लेकर पूछे सवाल पर जयशंकर ने कह दी ऐसी बात कि...मुंह ताकती रह गई दुनिया
Dharmendra Kumar Mishra
September 27, 2023 13:44 IST
संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने रूस के साथ रिश्तों को लेकर बड़ा बयान दिया है। रूस-यूक्रेन युद्ध और दुनिया के रिश्तों में तेजी से हो रहे बदलाव व उथल-पुथल के बीच एस जयशंकर ने कहा कि भारत और रूस के संबंध ‘बहुत, बहुत ज्यादा स्थिर’ बने हुए हैं और संबंध ऐसे ही बने रहें, यह सुनिश्चित करने के लिए ‘हम काफी सावधानी बरतते हैं’।
उन्होंने कहा कि अगर आप विश्व राजनीति के पिछले 70 वर्षों पर गौर करें तो अमेरिका-रूस, रूस-चीन, यूरोप-रूस, लगभग इनमें से हर एक रिश्ते में बड़े उतार-चढ़ाव आए हैं। इन संबंधों में बहुत बुरा और अच्छा वक्त रहा है, लेकिन भारत-रूस संबंध वास्तव में बहुत, बहुत ज्यादा स्थिर रहे हैं।’’ यह दोनों देशों के पुराने और अटूट रिश्तों का उदाहरण है।
रिपोर्ट के अगले भाग का कहना है
विदेशी संबंधों से जुड़ी एक परिषद में बातचीत के दौरान जयशंकर ने मंगलवार को कहा कि फरवरी 2022 में यूक्रेन में युद्ध के कारण रूस के यूरोप तथा पश्चिमी देशों के साथ संबंधों पर ‘इतना गंभीर असर’ पड़ा है कि वह अब वास्तव में एशिया तथा दुनिया के अन्य हिस्सों की ओर हाथ बढ़ा रहा है।
एस जयशंकर ने कहा किभारत-रूस के रिश्ते वास्वत में बहुत ज्यादा स्थिर हैं।’’ उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच रिश्ते सोवियत काल और सोवियत के बाद के काल से बने हुए हैं। जयशंकर ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के 78वें सत्र को संबोधित करने के बाद कहा, ‘‘मुझे लगता है कि दोनों देशों में यह समझ है कि एशियाई महाद्वीप की बड़ी शक्तियों के रूप में साथ आने के लिए हमारे पास एक तरह का संरचनात्मक आधार है। इसलिए यह सुनिश्चित करने के लिए हम काफी सावधानी बरतते हैं कि रिश्ते बने रहे।’’ विदेश मंत्री ने कहा कि रूस ने ऐतिहासिक रूप से अपने आप को यूरोपीय शक्ति के रूप में देखा है, भले ही वह यूरोप और एशिया दोनों में फैला हुआ है।
रिपोर्ट का शेष भाग इस प्रकार है
विदेश मंत्री ने यूक्रेन पर हमला करने के लिए रूस पर अमेरिकी की अगुवाई में प्रतिबंधों के संदर्भ में कहा, ‘‘साल 2022 के बाद से यूरोप और पश्चिमी देशों के साथ रूस के संबंधों पर इतना गंभीर असर पड़ा है कि वह अब वास्तव में एशिया तथा दुनिया के अन्य हिस्सों की ओर रुख कर रहा है लेकिन मुख्य रूप से एशिया की ओर क्योंकि वहां काफी आर्थिक गतिविधि है और वह एशियाई शक्ति भी है, भले ही उसने खुद को मुख्य रूप से उस रूप में हमेशा नहीं देखा है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘मेरा अनुमान यह होगा कि रूस वैकल्पिक रिश्ते बनाने के लिए जोरदार ढंग से प्रयास करेगा जिनमें से ज्यादातर रिश्ते एशिया में होंगे। यह अर्थशास्त्र और व्यापार, संभवत: अन्य क्षेत्रों में दिखेगा।’’ जयशंकर ने कहा, ‘‘मैं जानता हूं कि इसमें रूस-चीन का एक विशेष स्थान होगा लेकिन मैं यह भी कहूंगा कि रूस के साथ हमारे अपने संबंध 50 के दशक से ही अत्यधिक स्थिर रहे हैं।
इस के साथ ही मीडिया ने आज की विश्व राजनीति पर एक विवेचना भी प्रकाशित की है जिसकी भूमिका का कहना है
खालिस्तानी आंदोलन के तार कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन से जुड़ने की पूरी कहानी- विवेचना
Author,रेहान फ़ज़ल
पदनाम,बीबीसी संवाददाता
अप्रैल 1979 में पटियाला के पंजाबी विश्वविद्यालय में एक सम्मेलन हो रहा था. तीन घंटे तक लगातार चले भाषणों ने सबको बोर कर दिया था. संयोजक खड़े होकर धन्यवाद प्रस्ताव की तैयारी कर रहे थे और वहाँ मौजूद लोग भी इस उम्मीद में खड़े हो गए थे कि अब लंच का समय आ गया है.
तभी अचानक दो लोग हॉल के पीछे से दौड़ते हुए आए और मंच पर चढ़ गए. उन्होंने भारतीय संविधान के विरोध में नारे लगाए और हवा में कुछ काग़ज़ फेंके. फिर वो जितनी तेज़ी से दौड़ते हुए अंदर आए थे उतनी ही तेज़ी से दौड़ते हुए बाहर चले गए.
अगले दिन ‘द ट्रिब्यून’ अख़बार के संपादक और जाने-माने पत्रकार प्रेम भाटिया ने लिखा कि विश्वविद्यालय सम्मेलन में जो घटना हुई है वो अत्यंत गंभीर है. उन्होंने एक शब्द का इस्तेमाल किया 'खालिस्तान' जो ट्रिब्यून के पाठकों ने पहले कभी नहीं सुना था.
भारत के आज़ाद होने के कुछ सालों के अंदर ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा में बसने वाले भारतीयों में सबसे बड़ी तादाद पंजाब से आने वाले सिखों की थी. इनमें से कुछ लोग तो ब्रिटिश शासन के दौरान ही इन देशों में बस चुके थे.
रिपोर्ट का अगला भाग बता रहा है
इन लोगों की दिक्कतें तब शुरू हुईं जब कंपनियों ने ज़ोर देना शुरू किया कि वो अपनी दाढ़ी कटाएँ और पगड़ी पहनना बंद करें.
इन लोगों ने अपनी शिकायतें भारतीय उच्चायोग के सामने रखीं, लेकिन उच्चायोग ने इस मामले में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया और सिखों को सलाह दी कि अपनी शिकायतों के निवारण के लिए स्थानीय प्रशासन से संपर्क करें.
रॉ के पूर्व अतिरिक्त सचिव बी रमण ने सिख अलगाववाद पर अपने व्हाइट पेपर में लिखा, "सिखों के मुद्दों को विदेशी सरकारों के सामने उठाने में भारत सरकार की झिझक ने ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा में रहने वाले सिखों के एक तबक़े में इस भावना को बढ़ावा दिया कि एक अलग देश में ही उनके धार्मिक अधिकारों की रक्षा हो सकती है."
"ब्रिटेन के सिख बस ड्राइवरों और कंडक्टरों ने चरण सिंह पंछी के नेतृत्व में सिख होम रूल मूवमेंट की शुरुआत की. इसी तरह अमेरिका के कुछ ख़ुशहाल सिख किसानों ने 'यूनाइटेड सिख अपील' की स्थापना की. लेकिन अधिक्तर सिख लोग इन संगठनों से दूर रहे और उन्होंने अलग सिख देश के विचार का समर्थन नहीं किया."
इसके बाद रिपोर्ट का कहना है
1967 से 1969 के बीच पंजाब विधानसभा के उपाध्यक्ष रहे जगजीत सिंह चौहान बाद में पंजाब के वित्त मंत्री भी बने, कुछ समय बाद वे लंदन में बस गए. वहाँ उन्होंने सिख होम रूल लीग की न सिर्फ़ सदस्यता ग्रहण की बल्कि इसके अध्यक्ष भी बन गए.
बाद में उन्होंने इसका नाम बदल कर खालिस्तान आंदोलन कर दिया. उनके ब्रिटेन पहुंचने से पहले से ही पाकिस्तानी उच्चायोग और लंदन में अमेरिकी दूतावास सिख होम रूल आंदोलन के संपर्क में था.
रॉ के अतिरिक्त सचिव रहे बी रमण अपनी किताब ‘काव ब्वॉएज़ ऑफ़ रॉ’ में लिखते हैं, "पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल याह्या ख़ान ने जगजीत सिंह चौहान को पाकिस्तान आमंत्रित किया. वहाँ उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया और पंजाब के सिख नेता के रूप में उनका प्रचार किया गया. उनकी पाकिस्तान यात्रा के दौरान वहाँ के प्रशासन ने उन्हें पाकिस्तान के गुरुद्वारों में रखे पवित्र सिख दस्तावेज़ भेंट किए. वो उन्हें अपने साथ ब्रिटेन ले गए और अपने आपको सिखों का नेता दिखाने के लिए उनका इस्तेमाल किया."
समापन से पहले रिपोर्ट बता रही है
दिसंबर, 1971 में पाकिस्तान से लड़ाई शुरू होने से पहले इंदिरा गाँधी के निर्देश पर रॉ ने पूर्वी पाकिस्तान में लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन को दिखाने के लिए पूरी दुनिया में एक अभियान चलाया.
सीआईए और आईएसआई ने इसका जवाब देते हुए भारत में सिखों के मानवाधिकार हनन और विदेशों में रह रहे सिखों की समस्याओं के प्रति भारत के 'उदासीन रवैये' को प्रचारित करना शुरू कर दिया.
जगजीत सिंह चौहान ने न्यूयॉर्क की यात्रा करके स्थानीय मीडिया से मुलाकात की और उन्हें खालिस्तान आंदोलन की जानकारी दी. उन बैठकों का आयोजन अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सचिवालय के लोगों ने करवाया जिसका नेतृत्व उस समय हेनरी किसिंजर कर रहे थे.
टेरी मिलिउस्की अपनी किताब ‘ब्लड फ़ॉर ब्लड फ़िफ़्टी इयर्स ऑफ़ द ग्लोबल खालिस्तान प्रोजेक्ट’ में लिखते हैं, "13 अक्तूबर, 1971 को जगजीत सिंह चौहान ने न्यूयॉर्क टाइम्स में एक पूरे पन्ने का इश्तेहार दिया जिसमें स्वतंत्र सिख राज्य खालिस्तान के लिए आंदोलन शुरू करने की बात कही गई थी."
"यहीं नहीं उन्होंने अपने-आप को खालिस्तान का राष्ट्रपति भी घोषित कर दिया. बाद में रॉ की जाँच में पता चला कि इस विज्ञापन का ख़र्च वॉशिंग्टन स्थित पाकिस्तान के दूतावास ने उठाया था."
रिपोर्ट का समापन इस प्रकार हुआ है
इस बीच ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा में सिख युवाओं ने अंतरराष्ट्रीय सिख युवा फ़ेडेरेशन, दल खालसा और बब्बर खालसा जैसे कई संगठनों की स्थापना की. इन सभी ने जगजीत सिंह चौहान को दरकिनार कर खालिस्तान की स्थापना के लिए हिंसक आंदोलन की वकालत की.
चौहान इंदिरा गांधी के सत्ता से हटते ही भारत आ गए थे लेकिन जब 1980 में इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आईं तो चौहान वापस इंग्लैंड चले गए.
टेरी मिलिउस्की लिखते हैं, "70 का दशक ख़त्म होते-होते आईएसआई की चौहान में दिलचस्पी ख़त्म होने लगी और उन्होंने दूसरे नए संगठनों को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया. चौहान ने अपने प्रचार अभियान के तहत कनाडा में कथित स्वतंत्र राज्य खालिस्तान के करेंसी नोट और डाक टिकट छपवाए और उनको प्रचारित करने लगे."
"इस बीच वो ओटावा भी गए. वहाँ उन्होंने चीनी राजनयिक से मुलाकात कर खालिस्तान आंदोलन के लिए चीन की सहायता माँगी लेकिन चीनियों ने उनकी बात नहीं मानी. सन 1980 के बाद पाकिस्तान ने उन्हें डाउनग्रेड करना शुरू कर दिया लेकिन अमेरिका की उनमें दिलचस्पी बरकरार रही."
राम प्रसाद
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Friday 29 September 2023
खालिस्तानी आंदोलन के तार कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन से कैसे जुडे
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सदस्य, म्यर उत्तराखंड, धुमाकोट/नैनीडांडा तथा इंटरनेट पर उपलब्ध दूसरे उत्तराखंडी ग्रुप
मीडिया ने रूस और भारत की लम्बी मित्रता के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसकी भूमिका का कहना है
भारत और रूस के बीच रिश्तों को लेकर पूछे सवाल पर जयशंकर ने कह दी ऐसी बात कि...मुंह ताकती रह गई दुनिया
Dharmendra Kumar Mishra
September 27, 2023 13:44 IST
संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने रूस के साथ रिश्तों को लेकर बड़ा बयान दिया है। रूस-यूक्रेन युद्ध और दुनिया के रिश्तों में तेजी से हो रहे बदलाव व उथल-पुथल के बीच एस जयशंकर ने कहा कि भारत और रूस के संबंध ‘बहुत, बहुत ज्यादा स्थिर’ बने हुए हैं और संबंध ऐसे ही बने रहें, यह सुनिश्चित करने के लिए ‘हम काफी सावधानी बरतते हैं’।
उन्होंने कहा कि अगर आप विश्व राजनीति के पिछले 70 वर्षों पर गौर करें तो अमेरिका-रूस, रूस-चीन, यूरोप-रूस, लगभग इनमें से हर एक रिश्ते में बड़े उतार-चढ़ाव आए हैं। इन संबंधों में बहुत बुरा और अच्छा वक्त रहा है, लेकिन भारत-रूस संबंध वास्तव में बहुत, बहुत ज्यादा स्थिर रहे हैं।’’ यह दोनों देशों के पुराने और अटूट रिश्तों का उदाहरण है।
रिपोर्ट के अगले भाग का कहना है
विदेशी संबंधों से जुड़ी एक परिषद में बातचीत के दौरान जयशंकर ने मंगलवार को कहा कि फरवरी 2022 में यूक्रेन में युद्ध के कारण रूस के यूरोप तथा पश्चिमी देशों के साथ संबंधों पर ‘इतना गंभीर असर’ पड़ा है कि वह अब वास्तव में एशिया तथा दुनिया के अन्य हिस्सों की ओर हाथ बढ़ा रहा है।
एस जयशंकर ने कहा किभारत-रूस के रिश्ते वास्वत में बहुत ज्यादा स्थिर हैं।’’ उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच रिश्ते सोवियत काल और सोवियत के बाद के काल से बने हुए हैं। जयशंकर ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के 78वें सत्र को संबोधित करने के बाद कहा, ‘‘मुझे लगता है कि दोनों देशों में यह समझ है कि एशियाई महाद्वीप की बड़ी शक्तियों के रूप में साथ आने के लिए हमारे पास एक तरह का संरचनात्मक आधार है। इसलिए यह सुनिश्चित करने के लिए हम काफी सावधानी बरतते हैं कि रिश्ते बने रहे।’’ विदेश मंत्री ने कहा कि रूस ने ऐतिहासिक रूप से अपने आप को यूरोपीय शक्ति के रूप में देखा है, भले ही वह यूरोप और एशिया दोनों में फैला हुआ है।
रिपोर्ट का शेष भाग इस प्रकार है
विदेश मंत्री ने यूक्रेन पर हमला करने के लिए रूस पर अमेरिकी की अगुवाई में प्रतिबंधों के संदर्भ में कहा, ‘‘साल 2022 के बाद से यूरोप और पश्चिमी देशों के साथ रूस के संबंधों पर इतना गंभीर असर पड़ा है कि वह अब वास्तव में एशिया तथा दुनिया के अन्य हिस्सों की ओर रुख कर रहा है लेकिन मुख्य रूप से एशिया की ओर क्योंकि वहां काफी आर्थिक गतिविधि है और वह एशियाई शक्ति भी है, भले ही उसने खुद को मुख्य रूप से उस रूप में हमेशा नहीं देखा है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘मेरा अनुमान यह होगा कि रूस वैकल्पिक रिश्ते बनाने के लिए जोरदार ढंग से प्रयास करेगा जिनमें से ज्यादातर रिश्ते एशिया में होंगे। यह अर्थशास्त्र और व्यापार, संभवत: अन्य क्षेत्रों में दिखेगा।’’ जयशंकर ने कहा, ‘‘मैं जानता हूं कि इसमें रूस-चीन का एक विशेष स्थान होगा लेकिन मैं यह भी कहूंगा कि रूस के साथ हमारे अपने संबंध 50 के दशक से ही अत्यधिक स्थिर रहे हैं।
इस के साथ ही मीडिया ने आज की विश्व राजनीति पर एक विवेचना भी प्रकाशित की है जिसकी भूमिका का कहना है
खालिस्तानी आंदोलन के तार कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन से जुड़ने की पूरी कहानी- विवेचना
Author,रेहान फ़ज़ल
पदनाम,बीबीसी संवाददाता
अप्रैल 1979 में पटियाला के पंजाबी विश्वविद्यालय में एक सम्मेलन हो रहा था. तीन घंटे तक लगातार चले भाषणों ने सबको बोर कर दिया था. संयोजक खड़े होकर धन्यवाद प्रस्ताव की तैयारी कर रहे थे और वहाँ मौजूद लोग भी इस उम्मीद में खड़े हो गए थे कि अब लंच का समय आ गया है.
तभी अचानक दो लोग हॉल के पीछे से दौड़ते हुए आए और मंच पर चढ़ गए. उन्होंने भारतीय संविधान के विरोध में नारे लगाए और हवा में कुछ काग़ज़ फेंके. फिर वो जितनी तेज़ी से दौड़ते हुए अंदर आए थे उतनी ही तेज़ी से दौड़ते हुए बाहर चले गए.
अगले दिन ‘द ट्रिब्यून’ अख़बार के संपादक और जाने-माने पत्रकार प्रेम भाटिया ने लिखा कि विश्वविद्यालय सम्मेलन में जो घटना हुई है वो अत्यंत गंभीर है. उन्होंने एक शब्द का इस्तेमाल किया 'खालिस्तान' जो ट्रिब्यून के पाठकों ने पहले कभी नहीं सुना था.
भारत के आज़ाद होने के कुछ सालों के अंदर ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा में बसने वाले भारतीयों में सबसे बड़ी तादाद पंजाब से आने वाले सिखों की थी. इनमें से कुछ लोग तो ब्रिटिश शासन के दौरान ही इन देशों में बस चुके थे.
रिपोर्ट का अगला भाग बता रहा है
इन लोगों की दिक्कतें तब शुरू हुईं जब कंपनियों ने ज़ोर देना शुरू किया कि वो अपनी दाढ़ी कटाएँ और पगड़ी पहनना बंद करें.
इन लोगों ने अपनी शिकायतें भारतीय उच्चायोग के सामने रखीं, लेकिन उच्चायोग ने इस मामले में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया और सिखों को सलाह दी कि अपनी शिकायतों के निवारण के लिए स्थानीय प्रशासन से संपर्क करें.
रॉ के पूर्व अतिरिक्त सचिव बी रमण ने सिख अलगाववाद पर अपने व्हाइट पेपर में लिखा, "सिखों के मुद्दों को विदेशी सरकारों के सामने उठाने में भारत सरकार की झिझक ने ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा में रहने वाले सिखों के एक तबक़े में इस भावना को बढ़ावा दिया कि एक अलग देश में ही उनके धार्मिक अधिकारों की रक्षा हो सकती है."
"ब्रिटेन के सिख बस ड्राइवरों और कंडक्टरों ने चरण सिंह पंछी के नेतृत्व में सिख होम रूल मूवमेंट की शुरुआत की. इसी तरह अमेरिका के कुछ ख़ुशहाल सिख किसानों ने 'यूनाइटेड सिख अपील' की स्थापना की. लेकिन अधिक्तर सिख लोग इन संगठनों से दूर रहे और उन्होंने अलग सिख देश के विचार का समर्थन नहीं किया."
इसके बाद रिपोर्ट का कहना है
1967 से 1969 के बीच पंजाब विधानसभा के उपाध्यक्ष रहे जगजीत सिंह चौहान बाद में पंजाब के वित्त मंत्री भी बने, कुछ समय बाद वे लंदन में बस गए. वहाँ उन्होंने सिख होम रूल लीग की न सिर्फ़ सदस्यता ग्रहण की बल्कि इसके अध्यक्ष भी बन गए.
बाद में उन्होंने इसका नाम बदल कर खालिस्तान आंदोलन कर दिया. उनके ब्रिटेन पहुंचने से पहले से ही पाकिस्तानी उच्चायोग और लंदन में अमेरिकी दूतावास सिख होम रूल आंदोलन के संपर्क में था.
रॉ के अतिरिक्त सचिव रहे बी रमण अपनी किताब ‘काव ब्वॉएज़ ऑफ़ रॉ’ में लिखते हैं, "पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल याह्या ख़ान ने जगजीत सिंह चौहान को पाकिस्तान आमंत्रित किया. वहाँ उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया और पंजाब के सिख नेता के रूप में उनका प्रचार किया गया. उनकी पाकिस्तान यात्रा के दौरान वहाँ के प्रशासन ने उन्हें पाकिस्तान के गुरुद्वारों में रखे पवित्र सिख दस्तावेज़ भेंट किए. वो उन्हें अपने साथ ब्रिटेन ले गए और अपने आपको सिखों का नेता दिखाने के लिए उनका इस्तेमाल किया."
समापन से पहले रिपोर्ट बता रही है
दिसंबर, 1971 में पाकिस्तान से लड़ाई शुरू होने से पहले इंदिरा गाँधी के निर्देश पर रॉ ने पूर्वी पाकिस्तान में लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन को दिखाने के लिए पूरी दुनिया में एक अभियान चलाया.
सीआईए और आईएसआई ने इसका जवाब देते हुए भारत में सिखों के मानवाधिकार हनन और विदेशों में रह रहे सिखों की समस्याओं के प्रति भारत के 'उदासीन रवैये' को प्रचारित करना शुरू कर दिया.
जगजीत सिंह चौहान ने न्यूयॉर्क की यात्रा करके स्थानीय मीडिया से मुलाकात की और उन्हें खालिस्तान आंदोलन की जानकारी दी. उन बैठकों का आयोजन अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सचिवालय के लोगों ने करवाया जिसका नेतृत्व उस समय हेनरी किसिंजर कर रहे थे.
टेरी मिलिउस्की अपनी किताब ‘ब्लड फ़ॉर ब्लड फ़िफ़्टी इयर्स ऑफ़ द ग्लोबल खालिस्तान प्रोजेक्ट’ में लिखते हैं, "13 अक्तूबर, 1971 को जगजीत सिंह चौहान ने न्यूयॉर्क टाइम्स में एक पूरे पन्ने का इश्तेहार दिया जिसमें स्वतंत्र सिख राज्य खालिस्तान के लिए आंदोलन शुरू करने की बात कही गई थी."
"यहीं नहीं उन्होंने अपने-आप को खालिस्तान का राष्ट्रपति भी घोषित कर दिया. बाद में रॉ की जाँच में पता चला कि इस विज्ञापन का ख़र्च वॉशिंग्टन स्थित पाकिस्तान के दूतावास ने उठाया था."
रिपोर्ट का समापन इस प्रकार हुआ है
इस बीच ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा में सिख युवाओं ने अंतरराष्ट्रीय सिख युवा फ़ेडेरेशन, दल खालसा और बब्बर खालसा जैसे कई संगठनों की स्थापना की. इन सभी ने जगजीत सिंह चौहान को दरकिनार कर खालिस्तान की स्थापना के लिए हिंसक आंदोलन की वकालत की.
चौहान इंदिरा गांधी के सत्ता से हटते ही भारत आ गए थे लेकिन जब 1980 में इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आईं तो चौहान वापस इंग्लैंड चले गए.
टेरी मिलिउस्की लिखते हैं, "70 का दशक ख़त्म होते-होते आईएसआई की चौहान में दिलचस्पी ख़त्म होने लगी और उन्होंने दूसरे नए संगठनों को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया. चौहान ने अपने प्रचार अभियान के तहत कनाडा में कथित स्वतंत्र राज्य खालिस्तान के करेंसी नोट और डाक टिकट छपवाए और उनको प्रचारित करने लगे."
"इस बीच वो ओटावा भी गए. वहाँ उन्होंने चीनी राजनयिक से मुलाकात कर खालिस्तान आंदोलन के लिए चीन की सहायता माँगी लेकिन चीनियों ने उनकी बात नहीं मानी. सन 1980 के बाद पाकिस्तान ने उन्हें डाउनग्रेड करना शुरू कर दिया लेकिन अमेरिका की उनमें दिलचस्पी बरकरार रही."
राम प्रसाद
Friday 1 September 2023
एक देश एक चुनाव को लेकर केंद्र ने कमेटी बनाई
Addressed to`
सदस्य, म्यर उत्तराखंड, धुमाकोट/नैनीडांडा तथा इंटरनेट पर उपलब्ध दूसरे उत्तराखंडी ग्रुप
अगले आम चुनाव के बारे में मीडिया की एक रिपोर्ट ने अपनी भूमिका में बताया है
Opposition Party Meet: शरद पवार के बाद अब जयंत चौधरी ने बसपा पर INDIA में आने पर किया बड़ा दावा, बोले- 'हम मायावती के साथ संपर्क में'
By: ABP Live | Updated at : 31 Aug 2023 02:13 PM (IST)
Opposition Parties Meeting Mumbai INDIA Jayant Chaudhary on mayawati will join india alliance or not Opposition Meeting in Mumbai: अब से कुछ घंटों के बाद ही मुंबई में विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन की बैठक शुरू होने जा रही है, जिसे लिए सभी दलों के नेताओं के मुंबई पहुंचने का सिलसिला चल रहा है. कई बड़े नेता पहले ही मुंबई पहुंच चुके हैं तो कई पहुंच रहे हैं.
पश्चिमी यूपी में प्रभाव रखने वाली राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष जयंत चौधरी (Jayant Chaudhary) भी इस बैठक में हिस्सा लेने मुंबई (Mumbai) पहुंच गए हैं, जहां एयरपोर्ट पर उनका शानदार स्वागत हुआ,
इस रिपोर्ट का अगला भाग बता रहा है
इस दौरान पत्रकारों से बात करते हुए जयंत ने गठबंधन की बैठक पर खुलकर बात की और बसपा सुप्रीमो मायावती को लेकर भी बड़ा दावा कर दिया. जयंत चौधरी जब मुंबई एयरपोर्ट पर पहुंचे तो तमाम कार्यकर्ताओं ने उनका स्वागत किया गया. इस दौरान सभी कार्यकर्ता अपने-अपने दलों की झंडे लेकर एयरपोर्ट पर पहुंचे थे. जंयत चौधरी ने इंडिया गठबंधन की बैठक को लेकर कहा कि, "इंडिया गठबंधन में सामूहिक लड़ाई है. सभी पार्टी के कार्यकर्ता एक जुट होकर चुनाव लड़ेंगे. देश को आगे बढ़ाने के लिए लड़ेंगे, हम ये चुनाव किसी को हराने के लिए नहीं लड़ रहे. जो देश में तरक्की पसंद करते हैं जो देश में संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करना चाहते हैं. जो समान विचारधारा के दल हम सब लोग मिलकर काम करेंगे.
समापन में रिपोर्ट का कहना है
इस बीच जब जयंत चौधरी से बसपा सुप्रीमो मायावती को लेकर सवाल किया गया कि रामदास आठवले ने मायावती को एनडीए के साथ आने को कहा है तो इस पर जयंत ने दावा किया है कि इंडिया गठबंधन का भी विस्तार होगा और समय से साथ और भी पार्टियां, नेता हमारे साथ आएंगे. उन्होंने कहा कि कई संगठन ऐसे हैं जो जमीन पर रहकर काम कर रहे हैं. हम उम्मीद करते हैं कि समान विचारधारा वाले ऐसे संगठन हमारे साथ मिलकर आगे बढ़ेंगे.
इस दौरान जब उनसे सवाल किया गया कि क्या आप लोगों ने मायावती से संपर्क किया है तो इसके जवाब में रालोद प्रमुख ने कहा कि, "संपर्क में तो सबके ही हम रहते है." उन्होंने कहा कि जब समय आएगा तो सारी चीजें खुलेंगी. पीएम पद की लड़ाई पर जयंत ने कहा कि मैं इस लड़ाई में दूर-दूर तक कहीं नहीं हूं. अजेंडा हमारे पास है, हम उस पर काम करेंगे. इसके बाद एलान करेंगे. हालांकि आपको बता दें कि इससे पहले शरद पवार ये कह चुके हैं कि मायावती पहले ही बीजेपी के संपर्क में हैं.
इसी सम्बन्ध में एक दूसरी रिपोर्ट की भूमिका बता रही है
एक देश एक चुनाव को लेकर केंद्र ने कमेटी बनाई:पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अध्यक्ष होंगे; छत्तीसगढ़ के डिप्टी CM सिंहदेव ने किया समर्थन
नई दिल्ली
भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा शुक्रवार को पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिलने दिल्ली स्थित उनके घर पहुंचे।
एक देश एक चुनाव पर केंद्र सरकार ने कमेटी बना दी है। न्यूज एजेंसी PTI के मुताबिक, पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इसका अध्यक्ष बनाया गया है। आज इसका नोटिफिकेशन जारी हो सकता है।
केंद्र सरकार ने 18 सितंबर से 22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया है। संभव है कि एक देश एक चुनाव पर सरकार बिल भी ला सकती है।
रिपोर्ट के अगले भाग का कहना है
केंद्र की बनाई कमेटी एक देश एक चुनाव के कानूनी पहलुओं पर गौर करेगी। साथ ही इसके लिए आम लोगों से भी राय लेगी। इस बीच, भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा कोविंद से मिलने उनके आवास पर पहुंचे। हालांकि, इस मुलाकात की वजह सामने नहीं आई है।
इधर, लोकसभा में विपक्ष के नेता और कांग्रेस सांसद अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि आखिर एक देश एक चुनाव की सरकार को अचानक जरूरत क्यों पड़ गई।
वहीं कांग्रेस नेता और छत्तीसगढ़ के डिप्टी CM टीएस सिंहदेव ने कहा- व्यक्तिगत तौर पर मैं एक देश एक चुनाव का स्वागत करता हूं। यह नया नहीं, पुराना ही आइडिया है।
संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने 31 अगस्त को ट्वीट कर विशेष सत्र की जानकारी दी।
सरकार बोली- अभी तो समिति बनी है, इतना घबराने की बात क्या है
इस के बाद रिपोर्ट बता रही है
संसदीय कार्य मंत्री, प्रह्लाद जोशी ने कहा, 'अभी तो समिति बनी है, इतना घबराने की बात क्या है? समिति की रिपोर्ट आएगी, फिर पब्लिक डोमेन में चर्चा होगी। संसद में चर्चा होगी। बस समिति बनाई गई है, इसका अर्थ यह नहीं है कि यह कल से ही हो जाएगा।'
शिवसेना (उद्धव गुट) के सांसद संजय राउत ने कहा कि BJP इंडिया से डरी हुई है। वन नेशन, वन इलेक्शन को मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए लाया जा रहा है।
सपा नेता राम गोपाल यादव ने कहा कि संसदीय व्यवस्था की सारी मान्यताओं को यह सरकार तोड़ रही है। अगर विशेष सत्र बुलाना था तो सरकार को सभी विपक्षी पार्टियों से कम से कम अनौपचारिक तौर पर बात करनी चाहिए थी। अब किसी को नहीं पता है कि एजेंडा क्या है और सत्र बुला लिया गया है।
क्या है वन नेशन-वन इलेक्शन
वन नेशन-वन इलेक्शन या एक देश-एक चुनाव का मतलब हुआ कि पूरे देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हों। आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे, लेकिन 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग कर दी गईं। उसके बाद 1970 में लोकसभा भी भंग कर दी गई। इस वजह से एक देश-एक चुनाव की परंपरा टूट गई।
समापन से पहले रिपोर्ट का कहना है
मई 2014 में जब केंद्र में मोदी सरकार आई, तो कुछ समय बाद ही एक देश और एक चुनाव को लेकर बहस शुरू हो गई। मोदी कई बार वन नेशन-वन इलेक्शन की वकालत कर चुके हैं। संविधान दिवस के मौके पर एक बार प्रधानमंत्री मोदी ने कहा- आज एक देश-एक चुनाव सिर्फ बहस का मुद्दा नहीं रहा। ये भारत की जरूरत है। इसलिए इस मसले पर गहन विचार-विमर्श और अध्ययन किया जाना चाहिए।
एक देश एक चुनाव की चर्चा के बीच एक दिन पहले केंद्र सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाने की घोषणा की। संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए बताया- 18 से 22 सितंबर तक दोनों सदनों का विशेष सत्र रहेगा। यह 17वीं लोकसभा का 13वां और राज्यसभा का 261वां सत्र होगा। इसमें 5 बैठकें होंगी।
रिपोर्ट के समापन का कहना है
जोशी ने यह भी कहा कि सत्र बुलाने के पीछे कोई एजेंडा नहीं है। उन्होंने जानकारी के साथ पुराने संसद भवन की फोटो शेयर की है। माना जा रहा है कि सत्र पुराने संसद भवन से शुरू और नए में खत्म होगा।
एक साल में संसद के तीन सत्र होते हैं। बजट, मानसून और शीत सत्र। मानसून सत्र 20 जुलाई से 11 अगस्त तक चला था। विशेष सत्र बुलाने की घोषणा मानसून सत्र के 3 हफ्ते बाद हुई है। विशेष सत्र मानसून सत्र के 37 दिन बाद होगा। जबकि शीतकालीन सत्र नवंबर के आखिरी हफ्ते में शुरू होना प्रस्तावित है।
राम प्रसाद
Tuesday 25 July, 2023
पसमांदा मुसलमानों को रिझाने में बीजेपी सरकार की मुश्किलें
Addressed to`
सदस्य, म्यर उत्तराखंड, धुमाकोट/नैनीडांडा तथा इंटरनेट पर उपलब्ध दूसरे उत्तराखंडी ग्रुप
आजकल देश में युनिफोर्म सिविल लॉ के बारे में चर्चा हो रही है , मीडिया की एक रिपोर्ट अपनी भूमिका में बता रही ई
डॉक्टर ताहिर महमूद इस्लामिक क़ानून और भारतीय फ़ैमिली क़ानूनों के जाने-माने जानकार हैं.
उन्होंने भारतीय क़ानून और संविधान पर कई किताबें लिखी हैं, उनमें से दो की मदद से अदालतें कई फ़ैसले सुना चुकी हैं- "भारत का मुस्लिम क़ानून" और "भारत और विदेशों में मुस्लिम क़ानून".
वो कहते हैं कि मुस्लिम लॉ हर मुस्लिम दौर में संहिताबद्ध (कोडिफाइड ) रहा है. उनका कहना था, "ये ग़यासुद्दीन बलबन (दिल्ली सल्तनत) के ज़माने से शुरू हुआ.
दिल्ली सल्तनत के दौर में इस्लामी अदालतें थीं, मुग़लों के ज़माने में ज़्यादा थीं.
इस रिपोर्ट के अगले भाग का कहना है
औरंगज़ेब ने 'फ़तवा -ए-आलमगीरी' लिखवाई जो इस्लामिक क़ानून पर आधारित थी.
औरंगज़ेब के दौर में एक कमीशन का गठन करके इस क़ानून को लाया गया था. ये सरकारी तौर पर नहीं बनाई गई थी.
डॉक्टर महमूद कहते हैं, "मुग़लों के ज़माने में सिविल मामलों की अदालतों की हैसियत अपेलेट कोर्ट की होती थी. उनके ज़माने में भी अदालतों की वरीयता होती थी. आज के सुप्रीम कोर्ट जैसी हैसियत बादशाह ख़ुद होते थे"
1526 से मुग़लों का दौर शुरू हुआ. मुग़ल साम्राज्य का मुस्लिम पर्सनल लॉ के विकास में अच्छा-ख़ासा योगदान रहा.
अकबर ने तो दीन-ए इलाही के नाम से एक अलग मज़हब की शुरुआत भी की जिसका उद्देश्य विभिन्न धार्मिक प्रथाओं में सामंजस्य स्थापित करना था.
क़ानून के माहिर प्रोफ़ेसर फैज़ान मुस्तफ़ा इन दिनों मुस्लिम पर्सनल लॉ और समान नागरिक संहिता पर यूट्यूब पर एक सीरीज़ चला रहे हैं, जिसमें उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ के इतिहास पर गहराई से रौशनी डाली है.
इस के बाद रिपोर्ट बता रही है
वो कहते हैं कि मुस्लिम शासकों ने शरिया क़ानून को सख़्ती से लागू नहीं किया और हिन्दुओं को उनके धर्म के हिसाब से बने रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप नहीं किया.
अपने एक वीडियो में वो कहते हैं, "चाहे दिल्ली सल्तनत 1206 से 1526 तक, या मुग़ल काल हो 1526 से अंग्रेज़ों के आने तक, इन्होंने हिन्दू लॉ में दख़ल नहीं दिया. यानी जो हिन्दुओं के पर्सनल मसले थे, उनमें उन्हें धार्मिक आज़ादी दे दी गई. ''
''पंचायतों के फ़ैसलों पर राज्य हस्तक्षेप नहीं करता था. रीति-रिवाज पर आधारित क़ानून को तरजीह दी जाती थी. इस्लामी क़ानून को उन पर थोपा नहीं गया".
प्रोफ़सर फैज़ान मुस्तफ़ा का कहना है कि औरंगज़ेब ने 40 के क़रीब इस्लामी विशेषज्ञों को बुलाकर 'फ़तवा -ए-आलमगीरी' क़ानूनी किताब को लिखवाया था जो शाही फरमान से अलग था.
उनका दावा था कि मुग़लों ने शरिया को असली शक्ल में कभी लागू नहीं किया.
भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव रखने वाला 'ग़ुलाम' क़ुतबुद्दीन ऐबक
18वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों के आने के बाद भारत में क़ानूनी व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए.
इस से अगले भाग में रिपोर्ट का कहना है
प्रोफ़सर फैज़ान मुस्तफ़ा के मुताबिक़, जब हिंदुस्तान में अंग्रेज़ आए तो उन्होंने ये माना कि हिंदुस्तान में धार्मिक क़ानून हैं.
वो कहते हैं, "पर्सनल लॉ का विकास अब अंग्रेज़ कर रहे थे. किसी मामले में अगर दोनों पक्ष मुसलमान हैं तो मुस्लिम क़ानून से फ़ैसला होगा, अगर दोनों हिन्दू हैं, तो हिन्दू शास्त्रों पर आधारित क़ानून से फ़ैसला होगा".
वो कहते हैं कि 18वीं शताब्दी के आते-आते अंग्रेज़ों ने तय किया कि वो खुद ही तय करेंगे ये मामले, उन्हें पंडितों और उलेमा की ज़रूरत नहीं है, "तो अंग्रेज़ों ने मुसलमानों और हिन्दुओं की धार्मिक पुस्तकों के अनुवाद का प्रोजेक्ट शुरू किया. यहाँ समझिए कि जो क़ानून बनेगा वो इन किताबों के आधार पर बनेगा."
अंग्रेज़ों ने अब फ़ैसले हनफ़ी मत की क़ानूनी किताब अल-हिदाया पर आधारित करके सुनना शुरू कर दिया. ये किताब अरबी में थी, जिसका पहले फ़ारसी और उसके बाद अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ.
प्रोफ़ेसर मुस्तफा कहते हैं, "मेरे हिसाब से ये अनुवाद एक सियासी प्रोजेक्ट था. इसमें बहुत-सी ग़लतियां थीं. अंग्रेज़ अदालतों ने चार्ल्स हैमिल्टन की अल-हिदाया के हिसाब से फ़ैसले सुनाए.''
समापन में इस रिपोर्ट का कहना है
''वो अंग्रेज़ जो हिंदुस्तान आकर वकालत करना चाहते थे, उनके लिए किताब अनिवार्य कर दी गई, तो जो मुस्लिम पर्सनल लॉ आज है वो इस्लामिक लॉ नहीं है, वो क़ानून इस ग़लत अनुवाद वाले अल-हिदाया पर आधारित है."
डॉक्टर ताहिर महमूद के मुताबिक़ जब अंग्रेज़ आए तो उन्होंने समझा कि सब ही समुदायों के लोगों में रिवाज एक जैसा है और उन्होंने ने फ़ैसले स्थानीय कस्टम के हिसाब से देने शुरू कर दिए.
डॉक्टर महमूद कहते हैं, "1873 के मद्रास सिविल कोर्ट एक्ट और 1876 के अवध लॉज़ एक्ट में लिखा गया कि मज़हबी क़ानून पर स्थानीय परंपरा को तरजीह दी जाएगी.''
इसमें महिलाएं पीड़ित हुईं क्योंकि स्थानीय प्रथाओं में महिलाओं को कोई अधिकार नहीं दिए गए थे, जायदाद में महिलाओं को कोई शेयर नहीं मिलता था. हालाँकि मुसलमानों में औरतों को जायदाद में आधा हिस्सा मिलने का रिवाज है."
ये क़दम हिन्दू क़ानून के मुताबिक़ था लेकिन शरिया के बिल्कुल विपरीत. डॉक्टर ताहिर महमूद कहते हैं, "इसको ख़त्म कराने के लिए उलेमा ने एक अभियान छेड़ा, उसके नतीजे में 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ एक्ट बना".
मीडिया ने एक रिपोर्ट पसमांदा मुसलमानों के बारे में भी प्रकाशित की है जिसकी भूमिका है
पसमांदा मुसलमानों को रिझाने में बीजेपी सरकार की मुश्किलें
भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ मुख्य रूप से 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लिकेशन अधिनियम से संचालित होता है. यह अधिनियम मुसलमानों के बीच विवाह, तलाक़, विरासत और रखरखाव के मामलों में इस्लामी क़ानून को लागू करने को मान्यता देता है.
लेकिन ये क़ानून 1935 में मौजूदा पाकिस्तान के सूबा सरहद (अब ख़ैबर-पख्तूनख्वाह) में लाया गया था.
डॉक्टर ताहिर महमूद कहते हैं, "मौजूदा पाकिस्तान के सूबा सरहद में एक क़ानून बना जिसका नाम मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1935 था. उस क़ानून का सब कुछ उठाकर केंद्र में लाया गया और 1937 वाला एक्ट लागू किया गया".
स्वतंत्रता के बाद (20वीं शताब्दी - वर्तमान)
इस रिपोर्ट के अगले भाग का कहना है
1947 में भारत को ब्रिटिश शासन से आज़ादी मिलने के बाद, 1950 में भारत का संविधान अपनाया गया, जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता और धर्म का पालन और प्रचार करने का अधिकार और आज़ादी दी गई.
यहाँ ये बताना ज़रूरी है कि 1937 वाले अधिनियम में कोई क़ानून कोडिफाइड नहीं है.
इसको सरल शब्दों में बताते हुए डॉक्टर ताहिर महमूद कहते हैं, "1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ एक्ट में सिर्फ़ लिखा है कि दोनों पक्ष मुसलमान हों तो शरीयत के हिसाब से फ़ैसला हो. ये एक्ट छोटे-से दो सेक्शंस पर आधारित है. पर्सनल लॉ कोडिफाई नहीं किया गया है. ''
''शरीयत का क़ानून क्या है वो नहीं लिखा है. उसमे कुछ मुद्दे लिखे हुए हैं, जैसे कि शादी, तलाक़, जायदाद, विरासत से जुड़े मामले हों और दोनों पक्ष मुसलमान हों, तो फ़ैसला शरीयत के हिसाब से होगा. दोनों पक्ष जिस मत के होंगे उसी मत के हिसाब से फ़ैसला होगा. और पर्सनल लॉ उसी समय लागू होगा जब दोनों पक्ष एक ही मज़हब के होंगे, वरना देश का सामान्य क़ानून लागू होगा."
साथ ही साथ रिपोर्ट यह भी बता रही है
''इस परिदृश्य में अदालतें इस्लामी विद्वानों की किताबों से मार्गदर्शन लेती हैं. डॉक्टर ताहिर महमूद कहते हैं, "सुन्नी मुसलमानों की सबसे मशहूर किताबें अल-हिदाया और फ़तवा-ए-आलमगीरी थीं. अदालतें इन किताबों की मदद से ही फ़ैसले देती थीं."
शिया मुसलमानों के मामले में उनकी किताब की रौशनी में फ़ैसले सुनाए जाते थे. आजकल अदालतें ख़ुद डॉक्टर ताहिर महमूद की किताबों के आधार पर फ़ैसले सुनाती हैं.
डॉक्टर महमूद के मुताबिक़ अदालतों ने अब तक 67 मामलों में उनकी किताब के हवाले से फ़ैसला दिया है. इसके अलावा सर दिनशा फ़र्दुनजी मुल्ला और आसिफ़ अली असग़र फ़ैज़ी की इस्लामिक क़ानून की किताबों के आधार पर भी अदालतें फ़ैसले सुनाती हैं.
राम प्रसाद
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Tuesday 25 July, 2023
पसमांदा मुसलमानों को रिझाने में बीजेपी सरकार की मुश्किलें
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सदस्य, म्यर उत्तराखंड, धुमाकोट/नैनीडांडा तथा इंटरनेट पर उपलब्ध दूसरे उत्तराखंडी ग्रुप
आजकल देश में युनिफोर्म सिविल लॉ के बारे में चर्चा हो रही है , मीडिया की एक रिपोर्ट अपनी भूमिका में बता रही ई
डॉक्टर ताहिर महमूद इस्लामिक क़ानून और भारतीय फ़ैमिली क़ानूनों के जाने-माने जानकार हैं.
उन्होंने भारतीय क़ानून और संविधान पर कई किताबें लिखी हैं, उनमें से दो की मदद से अदालतें कई फ़ैसले सुना चुकी हैं- "भारत का मुस्लिम क़ानून" और "भारत और विदेशों में मुस्लिम क़ानून".
वो कहते हैं कि मुस्लिम लॉ हर मुस्लिम दौर में संहिताबद्ध (कोडिफाइड ) रहा है. उनका कहना था, "ये ग़यासुद्दीन बलबन (दिल्ली सल्तनत) के ज़माने से शुरू हुआ.
दिल्ली सल्तनत के दौर में इस्लामी अदालतें थीं, मुग़लों के ज़माने में ज़्यादा थीं.
इस रिपोर्ट के अगले भाग का कहना है
औरंगज़ेब ने 'फ़तवा -ए-आलमगीरी' लिखवाई जो इस्लामिक क़ानून पर आधारित थी.
औरंगज़ेब के दौर में एक कमीशन का गठन करके इस क़ानून को लाया गया था. ये सरकारी तौर पर नहीं बनाई गई थी.
डॉक्टर महमूद कहते हैं, "मुग़लों के ज़माने में सिविल मामलों की अदालतों की हैसियत अपेलेट कोर्ट की होती थी. उनके ज़माने में भी अदालतों की वरीयता होती थी. आज के सुप्रीम कोर्ट जैसी हैसियत बादशाह ख़ुद होते थे"
1526 से मुग़लों का दौर शुरू हुआ. मुग़ल साम्राज्य का मुस्लिम पर्सनल लॉ के विकास में अच्छा-ख़ासा योगदान रहा.
अकबर ने तो दीन-ए इलाही के नाम से एक अलग मज़हब की शुरुआत भी की जिसका उद्देश्य विभिन्न धार्मिक प्रथाओं में सामंजस्य स्थापित करना था.
क़ानून के माहिर प्रोफ़ेसर फैज़ान मुस्तफ़ा इन दिनों मुस्लिम पर्सनल लॉ और समान नागरिक संहिता पर यूट्यूब पर एक सीरीज़ चला रहे हैं, जिसमें उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ के इतिहास पर गहराई से रौशनी डाली है.
इस के बाद रिपोर्ट बता रही है
वो कहते हैं कि मुस्लिम शासकों ने शरिया क़ानून को सख़्ती से लागू नहीं किया और हिन्दुओं को उनके धर्म के हिसाब से बने रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप नहीं किया.
अपने एक वीडियो में वो कहते हैं, "चाहे दिल्ली सल्तनत 1206 से 1526 तक, या मुग़ल काल हो 1526 से अंग्रेज़ों के आने तक, इन्होंने हिन्दू लॉ में दख़ल नहीं दिया. यानी जो हिन्दुओं के पर्सनल मसले थे, उनमें उन्हें धार्मिक आज़ादी दे दी गई. ''
''पंचायतों के फ़ैसलों पर राज्य हस्तक्षेप नहीं करता था. रीति-रिवाज पर आधारित क़ानून को तरजीह दी जाती थी. इस्लामी क़ानून को उन पर थोपा नहीं गया".
प्रोफ़सर फैज़ान मुस्तफ़ा का कहना है कि औरंगज़ेब ने 40 के क़रीब इस्लामी विशेषज्ञों को बुलाकर 'फ़तवा -ए-आलमगीरी' क़ानूनी किताब को लिखवाया था जो शाही फरमान से अलग था.
उनका दावा था कि मुग़लों ने शरिया को असली शक्ल में कभी लागू नहीं किया.
भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव रखने वाला 'ग़ुलाम' क़ुतबुद्दीन ऐबक
18वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों के आने के बाद भारत में क़ानूनी व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए.
इस से अगले भाग में रिपोर्ट का कहना है
प्रोफ़सर फैज़ान मुस्तफ़ा के मुताबिक़, जब हिंदुस्तान में अंग्रेज़ आए तो उन्होंने ये माना कि हिंदुस्तान में धार्मिक क़ानून हैं.
वो कहते हैं, "पर्सनल लॉ का विकास अब अंग्रेज़ कर रहे थे. किसी मामले में अगर दोनों पक्ष मुसलमान हैं तो मुस्लिम क़ानून से फ़ैसला होगा, अगर दोनों हिन्दू हैं, तो हिन्दू शास्त्रों पर आधारित क़ानून से फ़ैसला होगा".
वो कहते हैं कि 18वीं शताब्दी के आते-आते अंग्रेज़ों ने तय किया कि वो खुद ही तय करेंगे ये मामले, उन्हें पंडितों और उलेमा की ज़रूरत नहीं है, "तो अंग्रेज़ों ने मुसलमानों और हिन्दुओं की धार्मिक पुस्तकों के अनुवाद का प्रोजेक्ट शुरू किया. यहाँ समझिए कि जो क़ानून बनेगा वो इन किताबों के आधार पर बनेगा."
अंग्रेज़ों ने अब फ़ैसले हनफ़ी मत की क़ानूनी किताब अल-हिदाया पर आधारित करके सुनना शुरू कर दिया. ये किताब अरबी में थी, जिसका पहले फ़ारसी और उसके बाद अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ.
प्रोफ़ेसर मुस्तफा कहते हैं, "मेरे हिसाब से ये अनुवाद एक सियासी प्रोजेक्ट था. इसमें बहुत-सी ग़लतियां थीं. अंग्रेज़ अदालतों ने चार्ल्स हैमिल्टन की अल-हिदाया के हिसाब से फ़ैसले सुनाए.''
समापन में इस रिपोर्ट का कहना है
''वो अंग्रेज़ जो हिंदुस्तान आकर वकालत करना चाहते थे, उनके लिए किताब अनिवार्य कर दी गई, तो जो मुस्लिम पर्सनल लॉ आज है वो इस्लामिक लॉ नहीं है, वो क़ानून इस ग़लत अनुवाद वाले अल-हिदाया पर आधारित है."
डॉक्टर ताहिर महमूद के मुताबिक़ जब अंग्रेज़ आए तो उन्होंने समझा कि सब ही समुदायों के लोगों में रिवाज एक जैसा है और उन्होंने ने फ़ैसले स्थानीय कस्टम के हिसाब से देने शुरू कर दिए.
डॉक्टर महमूद कहते हैं, "1873 के मद्रास सिविल कोर्ट एक्ट और 1876 के अवध लॉज़ एक्ट में लिखा गया कि मज़हबी क़ानून पर स्थानीय परंपरा को तरजीह दी जाएगी.''
इसमें महिलाएं पीड़ित हुईं क्योंकि स्थानीय प्रथाओं में महिलाओं को कोई अधिकार नहीं दिए गए थे, जायदाद में महिलाओं को कोई शेयर नहीं मिलता था. हालाँकि मुसलमानों में औरतों को जायदाद में आधा हिस्सा मिलने का रिवाज है."
ये क़दम हिन्दू क़ानून के मुताबिक़ था लेकिन शरिया के बिल्कुल विपरीत. डॉक्टर ताहिर महमूद कहते हैं, "इसको ख़त्म कराने के लिए उलेमा ने एक अभियान छेड़ा, उसके नतीजे में 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ एक्ट बना".
मीडिया ने एक रिपोर्ट पसमांदा मुसलमानों के बारे में भी प्रकाशित की है जिसकी भूमिका है
पसमांदा मुसलमानों को रिझाने में बीजेपी सरकार की मुश्किलें
भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ मुख्य रूप से 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लिकेशन अधिनियम से संचालित होता है. यह अधिनियम मुसलमानों के बीच विवाह, तलाक़, विरासत और रखरखाव के मामलों में इस्लामी क़ानून को लागू करने को मान्यता देता है.
लेकिन ये क़ानून 1935 में मौजूदा पाकिस्तान के सूबा सरहद (अब ख़ैबर-पख्तूनख्वाह) में लाया गया था.
डॉक्टर ताहिर महमूद कहते हैं, "मौजूदा पाकिस्तान के सूबा सरहद में एक क़ानून बना जिसका नाम मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1935 था. उस क़ानून का सब कुछ उठाकर केंद्र में लाया गया और 1937 वाला एक्ट लागू किया गया".
स्वतंत्रता के बाद (20वीं शताब्दी - वर्तमान)
इस रिपोर्ट के अगले भाग का कहना है
1947 में भारत को ब्रिटिश शासन से आज़ादी मिलने के बाद, 1950 में भारत का संविधान अपनाया गया, जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता और धर्म का पालन और प्रचार करने का अधिकार और आज़ादी दी गई.
यहाँ ये बताना ज़रूरी है कि 1937 वाले अधिनियम में कोई क़ानून कोडिफाइड नहीं है.
इसको सरल शब्दों में बताते हुए डॉक्टर ताहिर महमूद कहते हैं, "1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ एक्ट में सिर्फ़ लिखा है कि दोनों पक्ष मुसलमान हों तो शरीयत के हिसाब से फ़ैसला हो. ये एक्ट छोटे-से दो सेक्शंस पर आधारित है. पर्सनल लॉ कोडिफाई नहीं किया गया है. ''
''शरीयत का क़ानून क्या है वो नहीं लिखा है. उसमे कुछ मुद्दे लिखे हुए हैं, जैसे कि शादी, तलाक़, जायदाद, विरासत से जुड़े मामले हों और दोनों पक्ष मुसलमान हों, तो फ़ैसला शरीयत के हिसाब से होगा. दोनों पक्ष जिस मत के होंगे उसी मत के हिसाब से फ़ैसला होगा. और पर्सनल लॉ उसी समय लागू होगा जब दोनों पक्ष एक ही मज़हब के होंगे, वरना देश का सामान्य क़ानून लागू होगा."
साथ ही साथ रिपोर्ट यह भी बता रही है
''इस परिदृश्य में अदालतें इस्लामी विद्वानों की किताबों से मार्गदर्शन लेती हैं. डॉक्टर ताहिर महमूद कहते हैं, "सुन्नी मुसलमानों की सबसे मशहूर किताबें अल-हिदाया और फ़तवा-ए-आलमगीरी थीं. अदालतें इन किताबों की मदद से ही फ़ैसले देती थीं."
शिया मुसलमानों के मामले में उनकी किताब की रौशनी में फ़ैसले सुनाए जाते थे. आजकल अदालतें ख़ुद डॉक्टर ताहिर महमूद की किताबों के आधार पर फ़ैसले सुनाती हैं.
डॉक्टर महमूद के मुताबिक़ अदालतों ने अब तक 67 मामलों में उनकी किताब के हवाले से फ़ैसला दिया है. इसके अलावा सर दिनशा फ़र्दुनजी मुल्ला और आसिफ़ अली असग़र फ़ैज़ी की इस्लामिक क़ानून की किताबों के आधार पर भी अदालतें फ़ैसले सुनाती हैं.
राम प्रसाद
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